सोचता हूँ कि बहुत सादा-ओ-मासूम है वो मैं अभी उस को शनासा-ए-मोहब्बत न करूँ रूह को उस की असीर-ए-ग़म-ए-उल्फ़त न करूँ उस को रुस्वा न करूँ वक़्फ़-ए-मुसीबत न करूँ सोचता हूँ कि अभी रंज से आज़ाद है वो वाक़िफ़-ए-दर्द नहीं ख़ूगर-ए-आलाम नहीं सहर-ए-ऐश में उस की असर-ए-शाम नहीं ज़िंदगी उस के लिए ज़हर भरा जाम नहीं सोचता हूँ कि मोहब्बत है जवानी की ख़िज़ाँ उस ने देखा नहीं दुनिया में बहारों के सिवा निकहत-ओ-नूर से लबरेज़ नज़ारों के सिवा सब्ज़ा-ज़ारों के सिवा और सितारों के सिवा सोचता हूँ कि ग़म-ए-दिल न सुनाऊँ उस को सामने उस के कभी राज़ को उर्यां न करूँ ख़लिश-ए-दिल से उसे दस्त-ओ-गरेबाँ न करूँ उस के जज़्बात को मैं शो'ला-ब-दामाँ न करूँ सोचता हूँ कि जला देगी मोहब्बत उस को वो मोहब्बत की भला ताब कहाँ लाएगी ख़ुद तो वो आतिश-ए-जज़्बात में जल जाएगी और दुनिया को इस अंजाम पे तड़पाएगी सोचता हूँ कि बहुत सादा-ओ-मासूम है वो मैं उसे वाक़िफ़-ए-उल्फ़त न करूँ