ग़ार-ए-हरा-ए-शायरी में बैठने जाता हूँ मैं और मैं हिसार-ए-ज़ात भी कर के रखूँगा इस हिसार-ए-ज़ात के बाहर कोई भी दाश्ता शोहरत की शहर-नौ लगा बैठे न अपना देखते रहना न करना इंतिज़ार इस का कि मैं ताज़ा सहीफ़ा लाने वाला हूँ कि हर ताज़ा सहीफ़ा एक दिन मंसूख़ होना है उसे वो मअनी-ओ-मफ़्हूम खोना है जो असल मुद्दआ है मैं वापस आऊँगा और मैं 'किताब-ए-ज़ात' इक हम-राह लाऊँगा 'किताब-ए-ज़ात' की हर आयत इंसानी मसाइल का बयाँ होगी तलाश-ए-हल के मारों की उमीदों का ज़ियाँ होगी मसाइल जावेदाँ हैं ज़ात का असल-ए-बयाँ हैं और फ़रार उन से बला है और यही रम्ज़-ए-तलाश-ए-'आँ-ख़ुदा' है और तलाश-ए-'आँ-ख़ुदा' आईना-हा-ए-ज़िंदगी और ज़िंदगी ग़ार-ए-हिरा है ज़ात-ए-इन्सां की इसी ग़ार-ए-हिरा में जब मयस्सर ज़ात आएगी मैं वापस आऊँगा और मैं 'किताब-ए-ज़ात' इक हम-राह लाऊँगा कोई भी दाश्ता शोहरत की शहर-ए-नौ लगा बैठे न अपना देखते रहना