बे-सबाती ज़ीस्त की तस्लीम करता हूँ मगर क्या ज़रूरी है कि बे-मक़्सद भी हो जाए हयात कोई नसबुलऐन हो गर आदमी के सामने हस्ती-ए-नाचीज़ भी साबित हो रूह-ए-काएनात इक हक़ीक़त मुझ पे रौशन है जो करता हूँ बयाँ जबकि मैं ऐ दोस्तो मर्द-ए-जहाँ-दीदा नहीं बे-इरादा क्यों फिरे इंसान दश्त-ए-दहर में ज़िंदगी जो कुछ भी हो बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-दीदा नहीं