एक बुढ़िया शब गए दहलीज़ पर बैठी हुई तक रही है अपने इकलौते जवाँ बच्चे की राह सो चुका सारा मोहल्ला और गली के मोड़ पर बुझ चुका है लैम्प भी सर्द तारीकी खड़ी है जैसे दीवार-ए-मुहीब बूढ़ी माँ के जिस्म के अंदर मगर जगमगाती हैं हज़ारों मिशअलें आने वाला लाख बेहोशी की हालत में हो लेकिन रास्ता घर का कभी भूला नहीं और बे-आहट सड़क जानती है किस के क़दमों से अभी महरूम हूँ