सुकूँ के फूल हर इक दिल में माँ खिलाती है वो उजड़े घर को भी रश्क-ए-जिनाँ बनाती है जहाँ कहीं भी वो रखती है अपने पाक क़दम वहीं से ख़ुल्द को इक राह सीधी जाती है ख़ुदा भी उस को गिराता है क़अर-ए-पस्ती में नज़र से अपनी जिसे प्यारी माँ गिराती है ख़ुशी में माँ की जो ठंडक है उस का क्या कहना वो क़हर-ए-रब को भी इक आन में बुझाती है ज़बान खुलती है जैसे ही नन्हे बच्चे की बड़े ही चाह से कलिमा उसे पढाती है जो बच्चे रात में हो जाते हैं कभी बेदार उन्हें वो नींद की चादर मअ'न उढ़ाती है वो परवरिश ही नहीं करती अपने बच्चों की उन्हें वो साहिब-ए-किरदार भी बनाती है ज़रा भी खुलती है खिड़की जो माँ की यादों की तो दिल में ख़ुल्द से सीधे बहार आती है अगर हो चश्म-ए-तसव्वुर में माँ समाई हुई तो जितनी दूर हो उतनी वो याद आती है मिरे वजूद में शामिल है माँ का बहर-ए-करम मिरी हयात की कश्ती वही चलाती है जो माँ की ख़िदमत-ए-आली में पेश होता हूँ तो मामता के हसीं फ़र्श पर बिठाती है शफ़ीक़ माँ की मैं ख़िदमत कोई करूँ न करूँ वो मेरे हक़ में दुआएँ किए ही जाती है क़ुबूलियत में कोई देर भी नहीं लगती दुआ जो अर्श पे 'मक़्सूद' माँ की जाती है