पढ़ते पढ़ते थक जाता है, खिड़की से कुछ दूर गगन को, छू के वापस आ जाता हूँ नज़रों का अंदाज़ है यारो! पढ़ने में जी लग जाता है! यूँ भी जीना आ जाता है! सामने मेरे इक कमरा है कमरे की छोटी सी छत पर, एक बहुत मामूली लड़का, जब देखो टहला करता है! उम्र अगर पूछो, तो ऐसी जिस में सारे मन का ज़ोर, ये गहरा सागर पी जाए, ठोकर दे पर्बत को मार, कैसी अड़चन कैसी मुश्किल, अपनी मर्ज़ी अपनी मंज़िल, लेकिन वो मामूली लड़का, नाली उस को पी सकती है, तिनका उस को रेज़ा कर दे, उस की प्यासी प्यासी आँखें, उस के सूखे सूखे होंट सपनों से बेगाना जैसे, गीतों से अनजाने से, भूक ने अपनी लोरी दी है, चलते फिरते सो जाता है, सुब्ह सवेरे शाम, की बेला, नगरी में जब लगा हो मेला, एक अकेली छत पर तन्हा, एक वही लड़का फिरता है! पूरब जानिब नीचे कोई, छोटा सा इक आँगन होगा, शाम को आँगन सजता होगा, मेज़ों पर क्या कुछ न होगा, आलू, पूरी फुल्की छोले, बर्फ़ी, खोया लड्डू, पेड़े, और मज़े के खाने होंगे, बिजली, ख़ुशबू, बादल, मौजें, इंसानी पैकर में ढल कर, हँसते गाते मौज उड़ाते, मेज़ों पर गिर जाते होंगे! क्यूँ कि मैं ने अक्सर देखा, अपनी छत की आड़ में रह कर चुपके चुपके, पहरों पहरों,