नज़्म जो मरने वालों के ग़म में लिखें उस को हम ऐ मियाँ मर्सिया ही कहें मरसिए लखनऊ में लिखे जाते थे और मोहर्रम में बच्चो पढ़े जाते थे जल उठे यूँ ख़याल-ओ-नज़र के दिए शाइ'रों ने लिखे कितने ही मरसिए मर्सियों में मिले मंज़र-ए-कर्बला झूट और सच का है बच्चो इक मा'रका मरसिए के हैं शाइ'र 'अनीस'-ओ-'दबीर' मरसिए में नहीं इन की कोई नज़ीर मरसिए में है जज़्बात की इंतिहा है ये रोने रुलाने का इक सिलसिला ऊँची इक तान से अपने ईमान से मर्सिया तुम भी 'हाफ़िज़' कहो शान से