जागें कभी न ऐसा सुलाती है वक़्त पर शाह-ओ-फ़क़ीर सब को उठाती है वक़्त पर मुमकिन है किसी वक़्त वो बे-वक़्त हँसा दे ये बात मगर तय है रुलाती है वक़्त पर सब उस को उँगलियों पे नचाते रहे मगर तिगुनी का नाच वो भी नचाती है वक़्त पर पल-भर भी काम होने पे रुकती नहीं कभी आती है जैसे वैसे ही जाती है वक़्त पर उम्र-ए-रवाँ के साथ वो रहती है उम्र-भर बस एक बार रूठ के जाती है वक़्त पर अंजाम उस का बाइ'स-ए-इबरत हो इस लिए हो गर बुरा कोई तो सताती है वक़्त पर जो दर-ब-दर है आख़िरी मंज़िल की खोज में उस को भी सीधी राह दिखाती है वक़्त पर स्टेज पर दिखा के नए खेल तमाशे पर्दा वो ज़िंदगी का गिराती है वक़्त पर है मौत भी अजीब ही मा'शूक़ 'ख़्वाह-मख़ाह' वा'दा किए बग़ैर भी आती है वक़्त पर