बहुत मैं ने इस मुख़्तसर ज़िंदगी में अज़ीज़-ओ-अक़ारिब के सदमात देखे बहुत दोस्तों की जवाँ मय्यतों को सिसकते हुए मैं ने कांधा दिया है बहुत मेहरबानों की मजरूह लाशों के ताबूत मिट्टी के मुँह में उतारे मगर मेरी बे-रहम मनहूस आँखें ये दिल-दोज़ मंज़र समेटे हुए फिर नए ज़ख़्म तक मुंदमिल हो गईं हर दफ़ा अपने अश्कों के तूफ़ान को थपकियाँ दे के मैं ने सुला ही दिया और ख़ुद से कहा टूटना ही सितारों की क़िस्मत में था ये सभी अपनी क़िस्मत के लिक्खे हुए फ़ैसलों के मुताबिक़ ज़माने को धुत्कार कर जा रहे हैं मगर कल इक ऐसी भी मय्यत उठाई कि मैं जिस के जज़्बे की गहराइयों के समुंदर में अक्सर उतरता रहा था मुझे यूँ लगा जैसे मैं अपने काँधे पे अपना जनाज़ा उठाए हुए हूँ मुझे यूँ लगा जैसे ये मौत मेरा मुक़द्दर थी जिस को कोई दूसरा छीन कर ले गया है मुझे यूँ लगा जैसे इस बोझ को जो मेरे ज़ह्न में परवरिश पा रहा था तआ'क़ुब की बे-मेहर ज़द से बचा कर किसी ऐसे तारीक गोशे के अंदर छुपाने चला हूँ जहाँ राज़ को फ़ाश होने की कोताहियों से बचा लूँ