ज़ेहन पे इक घटा सी छाई है लफ़्ज़ों की अन-जानी बूँदें बरस रही हैं कोई मअनी शायद निकलें? ज़ख़्मी ताइर मेरे क़लम से लिपट गया और उस के पहलू में इक नन्हा सा तीर है तीर में इक काग़ज़ भी है अब के मेरे जन्म-दिन पर किस ने मुझ को याद किया है? मैं ने काग़ज़ खोल के देखा कुछ भी न था सिर्फ़ टूटी टूटी चंद लकीरें थीं ऐसे ख़त आते रहते हैं नाम नहीं होता जिन पर बात नहीं बनती लेकिन बात बनेगी कैसे? जब पहलू में ख़ार लगा हो आँखों में नम आ भी चुका हो जनम जनम के सौदे में तुम सब से आगे निकल गए हो सारे साथी छूट गए ग़म के छाले फूट गए जीने की उम्मीद नहीं है फिर भी तुम अब तक जीते हो उम्र तुम्हारी मौत से आगे निकल गई है सन्नाटे में जीना कितना मुश्किल है ख़्वाहिश के सदमे भी नहीं हैं