ज़ंजीरों में जकड़े हुए क़ैदी की सूरत रेग के सैल में एक बगूला हाँप रहा है अपने वजूद से ख़ौफ़-ज़दा है गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़्वाब से धुँद का नन्हा नुक़्ता फैल रहा है और उफ़ुक़ उस की ज़द में है मेरी आँखें दश्त-ए-ख़ला में नूर की एक लकीर को बनता देख रही हैं लेकिन मैं ये सोच रहा हूँ मेरी ज़मीं किस की हद में है