कभी ऐसा भी होता है मैं अनजाने पते पर एक ख़त लिख कर सिपुर्द-ए-डाक करती हूँ जो दिल में मुआ'मलात-ए-दिल हैं सब सद-चाक करती हूँ मैं लिख देती हूँ उन के नाम भी जिन से शिकायत है बता देती हूँ किस किस से मुझे कितनी मोहब्बत है तआ'रुफ़ उन का भी जिन से बहुत नुक़सान पहुँचा है जिन्हें पाने को सहरा तक दिल-ए-वीरान पहुँचा है रक़म करती हूँ किस का दिल दुखा है वाक़ई मुझ से बयाँ करती हूँ क्यूँ रूठी रही है ज़िंदगी मुझ से ग़लतियाँ हैं जो मेरी सब सर-ए-औराक़ रखती हूँ और हर सफ़्हे पे अपने दस्तख़त मिस्दाक़ रखती हूँ मगर ऐसा भी होता है कोई दस्तक सी होती है न जाने दरमियान-ए-शब यहाँ पर कौन आता है मिरी दहलीज़ पर आ कर मिरा ख़त डाल जाता है