मिरे चराग़ बुझ गए मैं तीरगी से रौशनी की भीक माँगता रहा हवाएँ साज़-बाज़ कर रही थीं जिन दिनों सियाह रात से उन्ही सियाह साअतों में सानेहा हुआ तमाम आईने ग़ुबार से बे-नूर हो गए सरा के चार सम्त हौल-नाक शब की ख़ामुशी चमकती आँख वाले भेड़ियों के ग़ोल ले के आ गई क़बा-ए-ज़िंदगी वो फाड़ ले गए नुकीले नाख़ुनों से उस तरह कि रूह चीथडों में बट गई ख़राब मौसमों की चाल थी कि आस-पास बाँबियों से आ गए निकल के साँप झूमते हुए बुझा दिया सफ़ेद रौशनी का दिल मदद को मैं पुकारता था और देखती थीं पुतलियाँ तमाशा ग़ौर से मगर न आईं बीन ले के अम्न वाली बस्तियों से जोगियों की टोलियाँ सियाह आँधियों का ज़ोर कब तलक सहारते मिरे चराग़ बुझ गए