मैं तन्हा हिज्र के जंगल के ग़ारों में जलाती हूँ सुख़न के वो दिए जिन को अभी बाहर की ज़हरीली हवाएँ अजनबी महसूस करती हैं अभी ये रौशनी जो सच की ख़ुश्बू की हिफ़ाज़त के लिए तारीकियों से लड़ रही है, ना-शनासी के ग़ुबार-आलूद रस्तों से गुज़रती है अभी जुगनू शबों में अपने होने की गवाही तक नहीं देते अभी तो तितलियाँ मैले परों से दर-ब-दर फिरती हैं बे-चारी अभी तो चाँद भी ठंडक नहीं देता मोहब्बत की अभी तो रात के शानों पे हैं हालात की ज़ुल्फ़ें मुझे मालूम है मैं जानती हूँ मुझ को रहना है इसी ग़ार-ए-अज़िय्यत में मगर सुन लो यहीं से मेरे होंटों को मिला है वस्फ़-ए-गोयाई यहीं से मेरे होंटों को मिला है वस्फ़-ए-गोयाई यहीं से मैं ने सच की रौशनी ख़ुद में उतारी है इसी ग़ार-ए-अज़िय्यत ने मिरे लफ़्ज़ों को आवाज़ें अता की हैं यहीं से एक दिन सूरज निकलना है वफ़ाओं का यहीं से एक दिन हर्फ़-ए-मोहब्बत भी जनम लेगा मिरे लफ़्ज़ों में मअ'नी का असर महसूस करते हो मिरी आवाज़ सुनते हो