माँ कहती है जब तुम छोटे थे तो ऐसे अच्छे थे सब आबाद घरों की माएँ पेशानी पर बोसा देने आती थीं और तुम्हारे जैसे बेटों की ख़्वाहिश से उन की गोदें भरी रहा करती थीं हमेशा और मैं तुम्हारे होने की राहत के नशे में कितनी उम्रें चूर रही थी इक इक लफ़्ज़ मिरे सीने में अटका है सब कुछ याद है आज कि मैं इक उम्र निगल कर बैठा हूँ उम्र की आख़िरी सरहद की बंजर मिट्टी जब से माँ के होंटों से गिरते लफ़्ज़ों में काँपती है मेरी साँस तड़प उठती है उस के मिटते नक़्श मिरे अंदर कोहराम सी इक तस्वीर बने हैं ज़िंदगियों के खोखले बन पर आँसुओं लिपटी हँसी मिरे होंटों पे लरज़ती रहती है अच्छी माँ उम्र के चलते साए की तज़लील में तेरे लहू के रस की लज़्ज़त तेरे ग़ुरूर की सारी शक्लें उन रस्तों में मिट्टी मिट्टी कर आया हूँ पथरीली सड़कों पे अपने ही क़दमों से ख़ुद को रौंद के गुज़रा हूँ मेरे लहू के शोर में तेरी कोई भी पहचान नहीं है तेरी उजली शबीह कुछ ऐसे धुँदलाई है तुझ से वस्ल की आँख से बीनाई ज़ाइल है मैं तेरे दर्दों का मारा तेरी ही सूरत में भी इक जीवन हारा