मोहब्बत और फ़ासले

सुना है फ़ासले हों तो मोहब्बत रूठ जाती है
मगर ये भी तो सच है कि

मोहब्बत फ़ासलों को कब भला ख़ातिर में लाती है
मोहब्बत में तकल्लुफ़ आने जाने का नहीं होता

मोहब्बत में कोई भी डर ज़माने का नहीं होता
मोहब्बत ऐसा पौदा है कि जो ख़ारों में पलता है

मगर ख़ारों का दिल भी इस मोहब्बत से दहलता है
मोहब्बत आज़माइश की सुरंगों से गुज़रती है

अगर हो आज़माइश तो मोहब्बत भी निखरती है
मगर कुछ फ़ासले ऐसे भी होते हैं

कि जैसे रेल की दो पटरियाँ हैं
कि जूँ दो हाथ और उन की उँगलियाँ हैं

कि जैसे चेहरे पर हैं दो दो आँखें
कि ये सब साथ चलते हैं

मगर है फ़ासला इन में
अलग भी हैं मगर गहरा सा है इक राब्ता इन में

सुनो फिर जो मुसीबत अब के है दरपेश हम को
तो फिर हम आज़माइश ही समझते हैं सितम को

ज़रूरी हैं अगर ये फ़ासले तो यूँ सही 'आकिब'
ज़माने की ख़ुशी ही में है अपनी भी ख़ुशी 'आकिब'

अगर यूँ है तो फिर इन फ़ासलों की हैसियत क्या है
मोहब्बत है दरख़्शाँ तो फिर इन की अहमियत क्या है


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