मैं इस शहर-ए-ख़राबी में फ़क़ीरों की तरह दर दर फिरा बरसों उसे गलियों में सड़कों पर घरों की सर्द दीवारों के पीछे ढूँढता तन्हा कि वो मिल जाए तो तोहफ़ा उसे दूँ अपनी चाहत का तमन्ना मेरी बर आई कि इक दिन एक दरवाज़ा खुला और मैं ने देखा वो शनासा चाँद सा चेहरा जो शादाबी में गुलशन था मैं इक शान-ए-गदायाना लिए उस की तरफ़ लपका तो उस ने चश्म-ए-बे-पर्वा के हल्के से इशारे से मुझे रोका और अपनी ज़ुल्फ़ को माथे पे लहराते हुए पूछा कहो ऐ अजनबी साइल गदा-ए-बे-सर-ओ-सामाँ तुम्हें क्या चाहिए हम से मैं कहना चाहता था उम्र गुज़री जिस की चाहत में वही जब मिल गया तो और अब क्या चाहे मुझ को मगर तक़रीर की क़ुव्वत न थी मुझ में फ़क़त इक लफ़्ज़ निकला था लबों से काँपता डरता जिसे उम्मीद कम थी उस के दिल में बार पाने की मोहब्बत लफ़्ज़ था मेरा मगर उस ने सुना रोटी