मुद्दत के बाद तुम से मिला हूँ तो ये खुला ये वक़्त और फ़ासला धोका नज़र का था चेहरे पे उम्र भर की मसाफ़त रक़म सही दिल के लिए तमाम सफ़र लम्हा भर का था कैसी अजीब साअत-ए-दीदार है कि हम फिर यूँ मिले कि जैसे कभी दूर ही न थे आँखों में कम-सिनी के वो सब ख़्वाब जाग उठे जिन में निगाह ओ दिल कभी मजबूर ही न थे मासूम किस क़दर थीं वो बे-नाम चाहतें बचपन से हम-कनार था अहद-ए-शबाब भी यूँ आतिश-ए-बदन में थी शबनम घुली हुई महताब से ज़ियादा न था आफ़्ताब भी फिर वो हवा चली कि सभी कुछ बिखर गया वो महफ़िलें वो दोस्त वो गुल-रंग क़हक़हे अब रक़्स-ए-गर्द-बाद की सूरत है ज़िंदगी ये वक़्त का अज़ाब कहाँ तक कोई सहे अब तुम मिलीं तो कितने ही ग़म हैं तुम्हारे साथ पत्थर की तरह तुम ने गुज़ारी है ज़िंदगी कितना लहू जलाया तो ये फूल मुस्कुराए किस किस जतन से तुम ने सँवारी है ज़िंदगी मैं ने भी एक जोहद-ए-मुसलसल में काट दी वो उम्र थी जो फूल से अरमाँ लिए हुए अब वो जुनूँ रहा है न वो मौसम-ए-बहार बैठा हूँ अपना चाक-ए-गिरेबाँ सिए हुए अब अपने अपने ख़ूँ की अमानत है और हम और इन अमानतों की हिफ़ाज़त के ख़्वाब हैं आँखों में कोई प्यास हो दिल में कोई तड़प फैले हुए उफ़ुक़ से उफ़ुक़ तक सराब हैं किस को ख़बर थी लम्हा इक ऐसा भी आएगा माज़ी तमाम फिर सिमट आएगा हाल में महसूस हो रहा है कि गुज़रा नहीं है वक़्त इक लम्हा बट गया था फ़क़त माह ओ साल मैं तुम भी वही हो मैं भी वही वक़्त भी वही हाँ इक बुझी बुझी सी चमक चश्म-ए-नम में है ये लम्हा जिस के सेहर में खोए हुए हैं हम कितनी मसर्रतों का सुरूर इस के ग़म में है