मिरी 'सलमा' मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में! जहाँ रंगीं बहिशतें खेलती हैं सब्ज़ा-ज़ारों में! जहाँ हूरों की ज़ुल्फ़ें झूमती हैं शाख़-सारों में जहाँ परियों के नग़्मे गूँजते हैं कोहसारों में जवानी की बहारें तैरती हैं आबशारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में वो मस्ताना बहारें जिन पे क़ुर्बां अर्ज़-ए-जन्नत है जहाँ हर ज़र्रा इक गहवारा-ए-मौज-ए-लताफ़त है जहाँ रंगत ही रंगत है जहाँ निकहत ही निकहत है मोहब्बत हुक्मराँ है जिन के पाकीज़ा दयारों में! मिरी 'सलमा' मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में! वो दोशीज़ा फ़ज़ाएँ जन्नतों का है गुमाँ जिन पर छिड़कता है मय-ए-तसनीम-ओ-कौसर आसमाँ जिन पर लुटाती है सहाब-ए-हुस्न-ओ-तलअत कहकशाँ जिन पर सुरूर ओ नूर ओ निकहत बस्ते हैं जिन के सितारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में! जहाँ शाम ओ सहर नीली घटाएँ घिर के आती हैं! उफ़ुक़ की गोद में नीलम की परियाँ मुस्कुराती हैं! फ़ज़ाओं में बहारें ही बहारें लहलहाती हैं जहाँ फ़ितरत मचलती है लहकते अब्र-पारों में! मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में! जहाँ चारों तरफ़ बाग़-ओ-गुलिस्ताँ लहलहाते हैं शगुफ़्ता वादियों में जन्नतों के ख़्वाब आते हैं जहाँ मासूम ताइर इश्क़ के नग़्मे सुनाते हैं और उन का लहन-ए-शीरीं गूँजता है कोहसारों में! मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में! हुकूमत है जहाँ सिद्क़-ओ-सफ़ा ओ मेहर-ओ-उल्फ़त की नशात-ओ-ऐश-ओ-इशरत की सुरूर-ओ-लुत्फ़-ओ-राहत की नसीम ओ अंजुम ओ गुल की नवा ओ नूर ओ निकहत की! मोहब्बत मौजज़न है जिन के दोशीज़ा नज़ारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं नज़ारों में! जहाँ आबाद ये नापाक शहरिस्तां नहीं होते फ़सादी फ़ित्ना-परवर और ज़लील इंसाँ नहीं होते ये इंसाँ हाँ ये हैवाँ बद-तर अज़-शैताँ नहीं होते फ़साद-ओ-शर जहाँ सोते हैं ख़्वाबों के मज़ारों में! मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं नज़ारों में! बहिश्तों की लताफ़त है जहाँ की ज़िंदगानी में मज़ा आता है कौसर का जहाँ के सादा पानी में ख़ुदाई हुस्न उर्यां है जहाँ की नौजवानी में! सदाक़त करवटें लेती है साज़-ए-दिल के तारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं नज़ारों में! ''हयात-ए-दाइमी'' लिक्खा हुआ है जिन के ऐवाँ पर इरम-ज़ार-ए-अबद है साया-ज़न जिन के ख़याबाँ पर दवामिय्यत के जल्वे छा रहे हैं बाग़-ए-बुस्ताँ पर गुज़र मुमकिन नहीं है मौत का जिन के नज़ारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं नज़ारों में मोहब्बत में जो हो जाता है पाइंदा नहीं मरता! सदाक़त जिस को कर देती है ताबिंदा नहीं मरता! है जिस में इश्क़ रक़्साँ वो दिल-ए-ज़िंदा नहीं मरता! नवा-ए-''ला-फ़ना'' है रूह के ख़ामोश तारों में मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तो उन रंगीं नज़ारों में!