कोई नज़्म कैसे कहें कि हम न चराग़ हैं न मिसाल-ए-हर्फ़-ए-गुलाब हैं न ख़याल हैं न किसी की आँख का ख़्वाब हैं किसी गुम-शुदा सी वफ़ाओं की किसी शाम में जो बिछड़ गए तो बिछड़ने वालों की याद में कहीं रेत हैं कहीं अश्क-ए-ग़म का ग़ुबार हैं वो जो दश्त हिज्र का है कहीं इसी दश्त-ए-शाम जुदाई के ये जो दाग़ हैं तिरी याद के तिरे बा'द के कोई नज़्म कैसे कहें कि हम न चराग़ हैं न मिसाल-ए-हर्फ़-एगुलाब हैं न ख़याल हैं न किसी की आँख का ख़्वाब हैं ये जो शहर है तो ये शहर भी सफ़-ए-दुश्मनाँ से मिला हुआ ये जो लोग हैं तो ये लोग भी कहाँ जानते हैं कि क्या हुआ कोई नज़्म कैसे कहीं कि हम ये फ़ज़ा ही ऐसी नहीं रही जो चराग़ कोई जलाएँ हम तो हवा ही ऐसी नहीं रही तही-ए-फ़िक्र ऐसे हुए हैं हम तिरे ख़ाल-ओ-ख़द का बयाँ भी अब न हमारे दस्त-ए-हुनर में था न हमारे दस्त-ए-हुनर में है