आज माना दर्द-ए-दिल बेहद बड़ा है रात को शिकवा है दिन से सुब्ह का ग़म भी सिवा है तुम मगर इतना तो सोचो ज़िंदगी कब एक जैसे रास्ते पर चल सकी है जो चलेगी आबदीदा मंज़रों से क़हक़हे भी फूटते हैं और ज़मीं को झुक के ऊँचे आसमाँ भी चूमते हैं इक ज़रा रुक कर तो देखो हौसला कर के तो देखो किस क़दर कीचड़ में रह कर मुस्कुराता है कँवल