लपकता सुर्ख़ इम्काँ जो मुझे आइंदा की दहलीज़ पर ला कर खड़ा करने की ख़्वाहिश में मचलता है मिरे हाथों को छू कर मुझ से कहता है तुम्हारी उँगलियों में ख़ून कम क्यूँ है तुम्हारे नाख़ुनों में ज़र्दियाँ किस ने सजाई हैं कलाई से निकलती हड्डियों पर ऊन कम क्यूँ है मैं उस से ना-तवाँ सी इक सदा में पूछता हूँ इस से पहले तुम कहाँ थे इस से पहले भी यही सारी ज़मीनें थीं यही सब आसमाँ थे और मेरी आँख में नीले हरे के दरमियाँ इक रंग शायद और भी था अब मिरे अंदर न झाँको मेरे बातिन में मुसलसल तैरती है ऊँघती दुनिया सराबों की नफ़ी सारे हिसाबों की