नग़्मा-ए-वतन

चमन की सर-ज़मीं अपनी चमन का आसमाँ अपना
बनाएँ किस लिए इक शाख़-ए-गुल पर आशियाँ अपना

हैं इस के ख़ार-ओ-गुल अपने ख़िज़ाँ अपनी बहार अपनी
बहर-सूरत हमें महबूब है ये गुल्सिताँ अपना

चमन की बज़्म-ए-रंगा-रंग में रक़्साँ है यक-रंगी
कि इस का साज़-ए-सद-आवाज़ भी है हम-ज़बाँ अपना

यहाँ परहेज़ कैसा आओ रिंदान-ए-वतन आओ
कि जाम अपना है अपना मै-कदा पीर-ए-मुग़ाँ अपना

गिराईं इस पे लाखों बिजलियाँ चर्ख़-ए-सितमगर ने
मगर अब भी तजल्ली-रेज़ है जन्नत-निशाँ अपना

न अब गुलचीं है ख़ोशा-चीं न वो सय्याद जाबिर है
जो था ना-मेहरबाँ अब हो रहा है मेहरबाँ अपना

कोई इस दौर में बेगाना हो कर रह नहीं सकता
कि हर अहल-ए-चमन 'हिन्दी' है ख़ुद ही पासबाँ अपना


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