बूढ़ी देहली के खंडरों में बस्ती ने अंगड़ाई ली है माज़ी के इस वीराने में रंग-बिरंगे फूल खिले हैं पूरब पच्छिम उतर दक्खिन इक मरकज़ पर आन मिले हैं लेकिन इस बस्ती के बासी इक-दूजे से बेगाने हैं सब मतलब के दीवाने हैं बाबू लोगों की ये बस्ती काग़ज़ के फूलों का चमन है रंग-बिरंगे इन फूलों में बू-ए-मोहब्बत बू-ए-नफ़रत बू-ए-रिफ़ाक़त बू-ए-रक़ाबत कुछ भी नहीं है कुछ भी नहीं है पत्थर हैं इन के पहलू में मर मिटने की तड़प नहीं है जीने का हैजान नहीं है वक़्त का इफ़रीत अपनी पीठ पे इन को लादे घूम रहा है घर से दफ़्तर दफ़्तर से घर दफ़्तर से घर घर से दफ़्तर