वो एक लम्हा जो सर पटकता है पत्थरों पर पड़ा हुआ है जो शाम के फैलते धुवें में लहू में लत-पत वो एक लम्हा कि जिस की ख़ातिर हज़ारों सदियाँ करोड़ों बरसों से आबला-पा मगर वो लम्हा सफ़र की पीली उदासियों के कबूतरों के परों से उलझा सवाद-ए-मंज़िल की मिशअलों में पिघल पिघल कर अयाँ हुआ है वो एक लम्हा सुलगते शब्दों की उँगलियों से गिरा जो नीचे तो धँस गया फिर अटल मआनी की दलदलों में मगर ये अच्छा हुआ कि उस दम खजूर भर कर जहाज़ आए तमाम नज़रें खजूर की गुठलियों में इंज़ाल ढूँडती थीं वो छे महीने हमल उठाए हमारे घर की क़दीम ज़ीनत न सीढ़ियों पर न खिड़कियों में न चाय की प्यालियों से उठते धुवें के पीछे तमन्ना काग़ज़ पे फैल जाए तो उस की शिद्दत का नाम टूटे सफ़ेद बकरी की आँख से कौन झाँकता है तुम्हें ख़बर है तुम्हें ख़बर हो तो मुझ से कह दो मैं अपने वालिद की क़ब्र का रास्ता तलाशूँ इधर भी सूरज में सारा मंज़र लहू लहू है उधर भी सायों में सारी आँखें धुआँ धुआँ हैं ये बंद आँखों में कौन छुप कर बदन के अंदर को झाँकता है ख़मोशियों के खंडर में गूँजी ख़मोशियों के खंडर में गूँजी अज़ाँ फ़जर की वज़ू के पानी के साथ सारे गुनाह टपके दुआ में उस ने शराब माँगी तो तिश्नगी के सराब छलके सितारे नीचे उतर के आए वो एक लम्हा शिकस्तगी के बदन के अंदर वो एक लम्हा शिकस्तगी के बदन से बाहर वो एक लम्हा हज़ार सदियों के बंधनों से निकल कर आया वो एक लम्हा जो दस्तरस के वसीअ हल्क़ों से दूर रह कर रुतूबतों में बड़ी तमाज़त से मुस्कुराया मुक़द्दरों में हज़ार लम्हों के दरमियाँ जिस का तख़्त ख़ाली लहू में लत-पत वो एक लम्हा वो एक लम्हा जो सर पटकता है पत्थरों पर!