नज़्म

ये पहली नज़्म उन आँखों की ख़ातिर है
कि जिन में चाँद तारों सी चमकती शाह-राहों पर हज़ारों अन-कहे जज़्बे हया की सुर्ख़ हिद्दत से पिघलते हैं

कि जिन में ख़्वाब रातों में उफ़ुक़ से एक शहज़ादा मोहब्बत की नई नज़्में लिए नीचे उतरता है
कि जिन में इश्क़ हर उजली सहर उम्मीद की रौशन ज़मीं पर ख़्वाहिशों के जिस्म में तज्सीम होता है

कि जिन में दास्तान-ए-दिल मुनक़्क़श अतलसी औराक़ पर आयात-ए-रब्बानी की सूरत में बिखरता है
ये पहली नज़्म उन साँसों की ख़ातिर है

कि जिन में बरहना बारिश उतर कर रेगज़ारों की तपिश आलूद राहों को गुल-ए-गुलज़ार करती है
कि जिन में हिज्र मौसम की तपिश याक़ूत के दोनों किनारों से किसी सय्याल की सूरत पहुँचती है

कि जिन के सब्ज़-ज़ारों में रुपहले इश्क़ की पहली सुनहरी शाम की यादें महकती हैं
कि जिन में कपकपाते वस्ल की सरगोशियाँ सिलवट-ज़दा यादों की शक्लों में उतरती हैं

ये पहली नज़्म उन ख़्वाबों की ख़ातिर है
जो दर्जा ख़ामुशी से हाथ की रेशम लकीरों में पनपते ख़्वाहिशों को देख कर ख़ुश-रंग खुलती हैं

कि जिन आँखों की गहरी झील में सूफ़ी मोहब्बत जाज़ की मद्धम धुनों पर रक़्स करती हैं
कि जिस के ला-ख़राशीदा बदन के ज़र्द माइल वरक़ पर से हिज्र के नुक़्ते मिटा कर वस्ल लिखना है

पिघलते वक़्त को जिस चाँद दामन में लिबास-ए-मुश्क ओढ़े यक-दिगर हो कर ठहरना है
ये पहली नज़्म उन आँखों की ख़ातिर है ये पहली नज़्म उन साँसों की ख़ातिर है ये पहली नज़्म उन ख़्वाबों की ख़ातिर है


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