नज़्म By Nazm << फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या... थोड़ा थोड़ा ख़र्च करें हम >> रात के फैलते सन्नाटों में दिल के ज़िंदान में इक याद का दीपक सा जला फड़फड़ाती है बहुत लौ उस की वादी-ए-हिज्र से आती हैं सदाएँ जितनी उस के सीने में बहुत गूँजती हैं इस्म-ए-हिजरत से अजब सब्ज़ हुआ है ज़िंदाँ इक सकूँ है कि जो वहशत में भी आसूदा है Share on: