मैं कितने बरसों से रोज़ अपने अना की एक परत छीलता हूँ लहू लहू इन हज़ार परतों की तह में पत्थर हूँ जानता हूँ ये कहकशाएँ ये काएनातें ये रौशनी के सियाह रस्ते गुज़र के तेरी तलाश में हैं कि हो न हो तुम वहाँ कहीं मेरी मुंतज़िर हो मुझे यक़ीं है कि तुम मेरी बात सुन रही हो मगर नहीं हो, कि ये जो तुम हो, ये तुम नहीं हो मिरी अना का कोई नगर हो कि जिस के रौशन सियाह कूचों में सर-कटे अजनबी भरे हैं मैं रूह के रेशमी लिबादे हटा के ख़ुद से मिलूँगा लेकिन मुझे ख़बर है कि तुम वहाँ भी नहीं मिलोगी कि तुम परस्तिश की आरज़ू का कोई भँवर हो कोई ख़ुदावंद-ए-लब मिले तो कि अपनी बंजर अदा के मंदिर में मूर्ती की तरह खड़ी हो हज़ार सदियों से राह तक तक के जम गई हो