मिरे तख़य्युल को बोलने का हुनर नहीं था हुरूफ़ जितने ख़िरद की फ़रहंग में पड़े थे मैं उन को चुनने के फ़न से वाक़िफ़ था और तरतीब जानता था मैं सब तराकीब जानता था मगर कमी थी कमी भी ऐसी कि जिस से अल्फ़ाज़ नीम-मुर्दा से लग रहे थे मैं सारे गुर आज़मा के जब थक गया तो सिगरेट जला लिया था और आँखें मूँदे तिरे ख़यालों में खो गया था उस एक लम्हे ख़िरद की फ़रहंग में लिखे सब हुरूफ़ रंगीन हो रहे थे तिरे सरापे को देखते ही हुरूफ़ सारे क़लम से क़िर्तास पर उतरने को हाथ बाँधे खड़े हुए थे कि जैसे तेरे ग़ुलाम हों सब मिरे तख़य्युल को बोलने का हुनर मिला नज़्म हो गई थी