झलका झलका सपीद-ए-सुब्ह झलका झलका सपीद-ए-सुब्ह तारे छुपते हैं झिलमिला कर है नूर सा जल्वा-गर फ़लक पर भीनी भीनी महक गुलों की और नग़्मा-ज़नी वो बुलबुलों की वक़्त-ए-सहरा और तंग हुआ है बे-मय सब किरकिरा मज़ा है इक चुल्लू के देने में ये तकरार उठो जागो सहर हुई यार दरिया की तरफ़ चले नहाने ग़ट परियों के ज़नान-ख़ाने मुर्ग़ान-ए-चमन ये नुक्ता-रानी चूँ ब्रहमनान ये बेद-ख़्वानी नौबत-ए-रंगत जमुना रही है शहनशा-ए-मज़ा दिखा रही है