ख़ुशी छूती नहीं दुख बस्ता है मन मुसाफ़िर है जाने किन ज़मानों की तरावत खोजने हर पल सफ़र में रहता है बंजर सर-ज़मीनों में ख़ुनुक चश्मों के ख़्वाब बो देता है ताबीरें फूटती नहिं दुख उग जाता है दुख जब उगने लगता है मन की सारी नमी ले लेता है आँखों की नमी और ख़्वाब दोनों सूख जाते हैं और दुख बस जाता है