फ़र्ज़ और हक़ अपनी जगह इन दोनों के दरमियान इक ख़ुद-कफ़ील अपनी दुनिया की मलिका मन-मर्ज़ी है अपनी हस्ती की अकेली मुशीर जुरअत-ए-शमशीर थाम कर हक़ और फ़र्ज़ से जंग करती है अगरचे कई बार नाकामी का हार मिलता है लेकिन जुनून और वा'दे की इतनी पक्की है ख़ुद को क़ाएम रखती है चाहे सारा ज़माना हर्फ़-ए-ग़लत ही समझे