छलक जाती हैं आँखें जब भी हम फ़रियाद करते हैं वो दिन क्या फिर न आएँगे जिन्हें हम याद करते हैं वो उन का प्यार वो शैख़-ओ-बरहमन याद आते हैं कभी इक शाख़ पर थे दो नशेमन याद आते हैं ख़ुशी मिलती थी उस को जो किसी के काम आता था किसी का दर्द ले कर किस क़दर आराम आता था वही हम हैं वही तुम हो फिर इतना फ़ासला क्यों है सभी कुछ एक है तो फिर ये दिल से दिल जुदा क्यों है कभी इस मुल्क की नज़दीक से तस्वीर तो देखो किसी के ख़्वाब की टूटी हुई ता'बीर तो देखो ख़िज़ाँ का दौर इस दिल के चमन से कैसे निकलेगा हमारे मुल्क का सूरज गहन से कैसे निकलेगा 'सुमन' दर्स-ए-मोहब्बत यूँ परिंदे हम को देते हैं कभी मंदिर में रहते हैं कभी मस्जिद में रहते हैं