इक सुब्ह जब बहार थी कमरे में मेज़ पे फूलों के रंग चाय की ख़ुश्बू से तेज़ थे खिड़की से आ रही थी किसी गीत की सदा ठहरी हुई थी नींद में डूबी हुई हवा रक्खे हुए थे तकिए के नीचे तुम्हारे ख़्वाब पंछी अभी उड़े न थे शाख़ों पे बोल के देखा न था किसी ने भी अख़बार खोल के जिस में तुम्हारे बारे में कोई ख़बर न थी तुम दूर इक नद्दी के किनारे के पास थीं वादी में एक सब्ज़ सितारे के पास थीं