मुद्दतों बाद मिला नामा-ए-जानाँ लेकिन न कोई दिल की हिकायत न कोई प्यार की बात न किसी हर्फ़ में महरूमी-ए-जाँ का क़िस्सा न किसी लफ़्ज़ में भूले हुए इक़रार की बात न किसी सत्र पे भीगे हुए काजल की लकीर न कहीं ज़िक्र जुदाई का न दीदार की बात बस वही एक ही मज़मूँ कि मिरे शहर के लोग कैसे सहमे हुए रहते हैं घरों में अपने इतनी बे-नाम ख़मोशी है कि दीवाने भी कोई सौदा नहीं रखते हैं सरों में अपने अब क़फ़स ही को नशेमन का बदल जान लिया अब कहाँ ताक़त-ए-परवाज़ परों में अपने वो जो दो चार सुबू-कश थे कि जिन के दम से गर्दिश-ए-जाम भी थी रौनक़-ए-मय-ख़ाना भी थी वो जो दो चार नवा-गर थे कि जिन के होते हुर्मत-ए-नग़्मा भी थी जुरअत-ए-रिंदाना भी थी कोई मक़्तल कोई ज़िंदाँ कोई परदेस गया चंद ही थे कि रविश जिन की जुदागाना भी थी अब तो बस बुर्दा-फ़रोशी है जिधर भी जाओ अब तो हर कूचा-ओ-कू मिस्र का बाज़ार लगे सर-ए-दरबार सितादा हैं बयाज़ें ले कर वो जो कुछ दोस्त कभी साहब-ए-किरदार लगे ग़ैरत-ए-इश्क़ कि कल माल-ए-तिजारत में न थी आज देखो कि हैं अम्बार के अम्बार लगे ऐसा आसेब-ज़दा शहर कि देखा न सुना ऐसी दहशत है कि पत्थर हुए सब के बाज़ू दर-ओ-दीवार-ए-ख़राबात वही हैं लेकिन न कहीं क़ुलक़ुल-ए-मीना है न गुल-बाँग-ए-सुबू बे-दिली शेवा-ए-अर्बाब-ए-मुहब्बत ठहरा अब कोई आए कि जाए ''तन्नाहू-याहू''