और फिर कुछ यूँ हुआ लफ़्ज़ की तकरार से मुर्तइश इज़हार से उक़्दा-ए-दुश्वार से शाइ'री उक्ता गई शाइ'री की बे-कराँ मौज-ए-तख़य्युल यूँ उठी तंग-ना-ए-नज़्म-ओ-नग़्मा गुम हुई इम्तियाज़-ए-बहर-ओ-बर मिटता गया एहतिमाम-ए-ज़ौक़-तर जाता रहा चश्मा-ए-वहम-ओ-गुमाँ फूटता है वादी-ए-इज्ज़-ए-बयाँ के वस्त से फैलती है ख़ीरगी लम्हा-ए-माकूस है आब-जू-ए-ख़्वाब है पैहम रवाँ झील सूरत हर्फ़ साकित हैं मगर झिलमिलाते हैं मआ'नी लफ़्ज़ के तालाब में बात गहरी है बहुत साज़ भी ख़ामोश है गुंजलक संजोग से मौजिब-ए-ना-ग़ुफ़्तनी क़ाबिल-ए-इज़हार है हाँ मगर वो शेरियत दूर इक लाया'नियत के बे-अमाँ पाताल में बरसर-ए-पैकार है