जज़्बात के तूफ़ाँ में ये ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ कब तक मजबूर ये दिल कब तक मरऊब ज़बाँ कब तक ये सूद के पर्दे में आहंग-ए-ज़ियाँ कब तक अल्फ़ाज़ के फंदों में एजाज़-ए-बयाँ कब तक आज़ाद हवाओं में पर तोल नहीं सकते अग़्यार के हाथों में उम्र-ए-गुज़राँ कब तक उठ जज़्बा-ए-ख़ुद्दारी ता-चंद ज़ियाँ-कारी उठ जोश-ए-हमिय्यत उठ ये ख़्वाब-ए-गिराँ कब तक एहसास की बस्ती में जब आग लगाई है ऐ सोज़-ए-दरूँ आख़िर निकले न धुआँ कब तक मक़्सद तिरी हस्ती का पोशीदा है कोशिश में ये नफ़्स-कुशी ता-कै ये ख़्वाब-ए-जिनाँ कब तक जीना है तो जीने के अंदाज़ भी पैदा कर काम आएँगे आबा के ये नाम-ओ-निशाँ कब तक कह डालीं वो सब आख़िर कहने की जो थीं बातें ख़ामोश 'बशीर' आख़िर रहती ये ज़बाँ कब तक