मैं ख़ुश्बू जिस्म समुंदर आँखों का इक ख़्वाब चुरा कर लाया था मैं आग चुरा कर लाया था सहरा-ए-वजूद की तन्हाई उस ख़्वाब से कितनी शादाँ थी उस आतिश-ए-लर्ज़ां की ताबिश तख़्लीक़ की ज़ौ में नुमायाँ थी मिरा ख़्वाब वो मेरा फूल बदन मरी आग मिरे फ़र्दा का चमन मैं ख़्वाबों से मसरूर रहा मैं आतिश पर मग़रूर रहा फिर लहर उठी फिर क़हर हुआ मिरा ख़्वाब ही मुझ को ज़हर हुआ पत्थर की चट्टानों पर मुझ को ज़ंजीरों से वाबस्ता किया ख़ुद आग भी इक ज़ंजीर बनी ज़ंजीर बनी शमशीर बनी हर क़ैस ने मुझ को ये पैग़ाम दिया ये हाल हमेशा क़ाएम है इस हाल का इस्तिक़बाल नहीं इस हाल की चक्की में तुम को हर लम्हे पिसते रहना है तुम कैसे रिहाई पाओगे ऐसा तो कोई पैदा न हुआ जो तुम को रिहाई दे आ कर तुम ख़्वाबों से मसरूर हुए जो बोया था वो काटोगे सब अपने किए की ख़ूबी है आ'माल को अपने भुगतोगे कोई नींद नहीं कोई ख़्वाब नहीं कोई नूर नहीं कोई नार नहीं फ़रियाद तुम्हारी बोली है अल्फ़ाज़ तुम्हारे आहें हैं इक क़हर-ए-ग़ज़ब कर्गस के लिए है जिस्म तुम्हारा दस्तरख़्वाँ वो दस्तरख़्वाँ पे बिखरी ने'मत से मफ़लूज-ओ-सियाह जिगर की लज़्ज़त से हर लम्हे लुत्फ़ उठाएगा हर लम्हे शोर मचाएगा मैं ख़ुश्बू जिस्म समुंदर आँखों का इक ख़्वाब चुरा कर लाया था मैं आग चुरा कर लाया था पत्थर की चटानों ने मुझ को इक मुफ़फ़्फ़ा गोश्त का रूप दिया ज़ंजीरें गिर्दा-गिर्द रहीं इक क़हर-ए-ग़ज़ब कर्गस अब तक कभी मेरी आँखें नोचते हैं कभी उन की लहर-ए-मिंक़ार से मेरे दिल की रगें इक ने की हिकायत छेड़ती हैं जो मुझ को रिहाई दे आ कर जो दर्द को ख़ुद महसूस करे वो ऐसी जगह ख़्वाबीदा है जहाँ सूरज भी तारीक हुआ क्या जानिए वो कब आएगा कब आएगा क्या वाक़ई आएगा