और फिर यूँ हुआ जो पुरानी किताबें, पुराने सहीफ़े बुज़ुर्गों से विर्से में हम को मिले थे उन्हें पढ़ के हम सब ये महसूस करने लगे उन के अल्फ़ाज़ से कोई मतलब निकलता नहीं है जो ताबीर-ओ-तफ़्सीर अगलों ने की थी मआनी-ओ-मफ़्हूम जो उन पे चस्पाँ किए थे अब उन की हक़ीक़त किसी वाहिमे से ज़ियादा नहीं है और फिर यूँ हुआ चंद लोगों ने ये आ के हम को बताया कि अब इन पुरानी किताबों को तह कर के रख दो हमारे वसीले से तुम पर नई कुछ किताबें उतारी गई हैं उन्हें तुम पढ़ोगे तो तुम पर सदाक़त नए तौर से मुन्कशिफ़ होगी बोसीदा-ओ-मुंजमिद ज़ेहन में खिड़कियाँ खुल सकेंगी तुम्हें इल्म-ओ-इरफ़ान और आगही के ख़ज़ीने मिलेंगे और फिर यूँ हुआ इन किताबों को अपनी किताबें समझ कर उन्हें अपने सीने से हम ने लगाया हर इक लफ़्ज़ का विर्द करते रहे एक इक सत्र को गुनगुनाते रहे एक इक हर्फ़ का रस पिया और हमें मिल गया जैसे म'अनी-ओ-मफ़्हूम का इक नया सिलसिला और फिर यूँ हुआ इन किताबों से इक दिन ये हम को बशारत मिली आने वाला है दुनिया में अब इक नया आदमी ले के अपने जिलौ में नई ज़िंदगी हम अँधेरी गुफाओं से औहाम की तंग गलियों से निकलेंगे हम को मिलेगी नई रौशनी और फिर यूँ हुआ लाने वाले किताबों के और वो भी जो इन पे ईमान लाए थे सब अपने अपने घरों से निकल कर किसी सम्त को चल पड़े ऐसे इक रास्ते पर जिधर से नया आदमी आने वाला था या हम को उस का यक़ीन था कि वो आएगा और इसी सम्त से बस इसी सम्त से आएगा और फिर यूँ हुआ देर तक हम नए आदमी के रहे मुंतज़िर देर तक शौक़-ए-दीदार की अपनी आँखों में मस्ती रही देर तक उस की आमद का हम गीत गाते रहे देर तक उस की तस्वीर ज़ेहनों में अपने बनाते रहे देर तक इस ख़राबे में इक जश्न होता रहा और फिर यूँ हुआ देर तक और भी देर तक जब न हम को मिला आने वाले का कोई पता उस के क़दमों की कोई न आहट मिली हम ने फिर ज़ोर से इस को आवाज़ दी ऐ नए आदमी! ऐ नए आदमी! और ये आवाज़ ऊँचे पहाड़ों से टकरा के बे-नाम सहराओं से लौट के फिर हमारी तरफ़ आ गई और फिर यूँ हुआ चंद लोगों ने सोचा कि शायद नया आदमी आएगा और ही सम्त से दूसरे चंद लोगों ने सोचा और फिर हर तरफ़ क़ाफ़िले क़ाफ़िले और फिर हर तरफ़ रास्ते रास्ते और फिर यूँ हुआ देर तक उस नए आदमी की रही जुस्तुजू उस को आवाज़ देते रहे चार सू कू-ब-कू, क़र्या क़र्या उसे हम बुलाते रहे मंज़िलों, मंज़िलों ख़ाक उड़ाते रहे और फिर यूँ हुआ सब के चेहरे उसी ख़ाक में अट गए सब की आँखों में इक तीरगी छा गई सब को डसने लगी राह की बे-हिसी और फिर सब वो इक दूसरे के लिए अजनबी हो गए और फिर सब के सब धुँद में खो गए और फिर यूँ हुआ हम ने फिर घर पे आ कर किताबों के औराक़ खोले उन्हें फिर से पढ़ने की ख़ातिर उठाया हर इक सत्र पर ग़ौर करते रहे देर तक और हर लफ़्ज़ को दूसरे लफ़्ज़ से जोड़ कर सिलसिला हर्फ़-ओ-नग़्मा का, सौत-ओ-सदा का मिलाते रहे और फिर यास-ओ-उम्मीद के दरमियाँ ढूँडते ही रहे उस नए आदमी का निशाँ और हमें बस मिलीं अपनी आवाज़ की ज़र्द, सूखी हुई पतियाँ और फिर यूँ हुआ हम से सूरज कई रोज़ रूठा रहा आसमानों से उठती रहीं तह-ब-तह बदलियाँ काली काली नज़र आईं सब वादियाँ काले घर, काली दीवारें, काली छतें काली सड़कों पे चलती हुई काली परछाइयाँ ये ज़मीं काले सागर में टूटी हुई नाव की तरह से डगमगाने लगी मौत की नींद आने लगी और फिर यूँ हुआ हम ने अपने घरों में जलाए ख़ुद अपने दिए हम ने बिखरे हुए ख़्वाब, टूटे हुए आईने फिर से जोड़े बुझे जिस्म की राख से सर उठाते हुए एक नन्हे से शोले को और अपने चेहरे में इक और चेहरे को देखा फिर अपने लहू की सदाएँ सुनीं और अपने लिए आप अपनी किताबें लिखीं