नींद के तआक़ुब में दूर दूर तक ला-हासिल देर से भटकता हूँ नीली आँखों वाली जंगली बिल्ली बार बार दुम हिलाती है मेरी चारपाई के नीचे नीम रौशन लैम्प के इर्द-गिर्द कीड़ों पर झपटती छिपकली बे-ख़बर है अपने अंत से कितना ग़ैर-मुतवक़्क़े होगा मिल जाना अनंत से मिट्टी के तेल की गंध क़ुलांचें भर रही है कमरे में बे-लगाम घोड़ी की तरह छत पर रेंगती हुई ख़ामोशी बार बार दोहरा रही है पापी निशाचरों का गीत और नींद मीलों दूर किसी ना-मालूम दरख़्त के पत्तों में छुपी चिड़ियों सा चहचहा रही है मुझे बुला रही है