नवम्बर जब भी आता है उदासी साथ लाता है किसी काग़ज़ के टुकड़े पे अगर कुछ लिख के मैं छोड़ूँ तो वो मुरझा ही जाता है दरीचा जब भी खुलता है निगल जाता है ख़्वाबों को सुनाई फिर नहीं देता कोई नग़्मा बहारों का दिखाई फिर नहीं पड़ता कोई चेहरा हवाओं का उधर की रेशमी शामें मुझे आवाज़ देती हैं कि अब तुम लौट भी आओ मुझे आबाद ही कर दो छुपा कर मेरी आँखों से उड़ा कर साथ ले जाओ कोई ऐसी जगह मुझ को जहाँ पर अब दिसम्बर की वो हल्की धूप आती हो जहाँ पर सैकड़ों अफ़राद मेरे हम-नवा भी हों जहाँ पर धूप ढलते ही मिरी परछाई मेरा साथ न छोड़े मुझे मालूम है ये सब नहीं मुमकिन है जीते-जी जहाँ दिल में मिरे ख़्वाहिश उठाती है कभी अब सर मैं उस को रोक देता हूँ नवम्बर जाते जाते फिर किसी काग़ज़ के टुकड़े पर मैं अपने नाम का ए लिख के यूँही छोड़ देता हूँ