रात में जब साफ़ होता है हमारा आसमाँ तब ज़मीं की सत्ह हो जाती है ठंडी जान-ए-जाँ जब हवा छूती है इस ठंडी हवा को शौक़ से तब हवा ठंडक से हो जाती नमी लबरेज़ है जैसे ही उस में हरारत की कमी आ जाती है भाप वो पानी की छोटी बूँद में ढल जाती है छोटी छोटी बूँद की शक्लों में आ कर घास पर मोतियों की शक्ल में फिर वो उतर कर घास पर आसमाँ की ओस इन पत्तों को चमकाने लगी दूसरे लफ़्ज़ों में इन को ओस नहलाने चली इस से उन पौदों को फिर से ताज़गी मिल जाती है और मुरझाए गुलों को ज़िंदगी मिल जाती है ठंडी ठंडी ओस पर तफ़रीह होती है मुफ़ीद और सेहत की कुछ न कुछ फिर जाग जाती है उमीद इस लिए बेदार हो जाओ सवेरे सुब्ह को ओस पर रोज़ाना ही दौड़ो सवेरे सुब्ह को