ये किस दयार में ले आई ज़िंदगी मुझ को जहाँ पे फूल से चेहरे बबूल लगते हैं जहाँ पे साया भी लगता है धूप की मानिंद नसीम चलती है रुक रुक के ऐसे सीने में कि जैसे फाँस किसी याद की अटकती हो जहाँ पे अब्र भी सूरज-मिसाल लगता है जहाँ किरन की ज़र्ब ज़ख़्म-ए-दिल खुरचती है खिले जो फूल तो पत्ती से चोट लगती है ये दहर वो है जिधर बाद-ए-ख़ुश-गवार-ए-सहर दरीचे खोल के यादों के आह भरती है हर एक चेहरे पे आवेज़ाँ आँख है लेकिन किसी नज़र में कोई रंग-ए-आश्नाई नहीं किसी का लम्स भी पोरों के रास्ते दिल में दिए जलाता नहीं इस क़दर अंधेरा है