खिड़कियाँ बंद हुईं नग़्मा-ए-दीदार की लय टूट गई खो गया धुंद में ख़ामोशी की खिलखिलाती हुई गुल-रंग सदा का चेहरा लग गया रंग की लहरों पे ये कैसा पहरा तैरती है मिरी मजरूह समाअ'त में मगर गुम-शुदा नग़्मा-ए-दीदार की लय देखती हैं मिरी बे-नूर निगाहें अब भी खिलखिलाती हुई गुल-रंग सदा का चेहरा मुझ से कहता है जो सरगोशी में क्यों कोई रंग की लहरों पे बिठाए पहरा रंग की लहर तो इक ख़्वाब है इक नग़्मा है और नग़्मे को भला क़ैद किया है किस ने ख़्वाब को भी कोई ज़ंजीर पहना सकता है