मैं दास्तान-ए-वफ़ा के इस मोड़ पर अजब कश्मकश में हूँ अब कि ज़ेहन-ओ-दिल की लड़ाइयाँ तो रह-ए-वफ़ा के हर इक मुसाफ़िर की ज़िंदगी का हैं जुज़्व-ए-लाज़िम है अब ये मुश्किल कि दिल में और मुझ में ठन गई है मिरा ये इसरार है मिलन की रुतों की पहली सहर तराशूँ पे दिल ब-ज़िद है कि शाम-ए-ग़म के दिए की लौ को लहू से सींचूं मैं दिल की सच्चाई पर यक़ीं रखने वाला इंसान कश्मकश में हूँ अब कि अपनी रगों के अमृत से वस्ल-रुत को जला दूँ या फिर ख़त्त-ए-शिकस्ता में अपनी आँखों के सुर्ख़ डोरों से रत-जगों की बयाज़ पर तेरा नाम लिक्खूँ सहर तराशूँ कि शाम लिक्खूँ