सुनो ऐ देस के लोगो कि ये जो ईद का दिन है अगर परदेस में आए न ख़ुशियाँ पास होती हैं न कोई मुस्कुराता है ख़ुशी ग़म से लिपटती है उदासी मुस्कुराती है सुनो ऐ देस के लोगो तुम्हारी याद आती है हमें फिर याद आती हैं सुहाने देस की यादें वो बचपन और जवानी के सुहाने दिन न पूछो किस तरह से हम घरों की बात करते और फिर आँसू छुपाते हैं बुझे दिल मुस्कुराते हैं सुनो ऐ देस के लोगो हमें शिद्दत से अपना दौर-ए-बचपन याद आता है हमें माओं की मीठी मीठी ममता याद आती है हँसाती है रुलाती है तसल्ली के लिए हम एक दूजे से ये कहते हैं दिनों की बात है हम भी वतन को लौट जाएँगे यक़ीनन ईद अगली अपने अपने घर मनाएँगे सुनो ऐ देस के लोगो अगर सच बात पूछो तो घरों को याद करने से कोई फ़रियाद करने से थकन से चूर होने से बहुत मजबूर होने से किसी को कुछ नहीं मिलता कोई दर भी नहीं खुलता