परिंदा सुब्ह से शाम तक भटकता है शाम ढलती है तो अपनी पनाह-गाह में लौट आता है मगर अपने पंजों में अटके ख़्वाब जंगलों बयाबानों वादियों और मैदानों को सौंप आता है ख़्वाब रात भर इधर-उधर भटकते हैं मगर आँखों की खिड़कियाँ उन पर नहीं खुलती ख़्वाब फूट फूट कर रोते हैं परिंदे को बुलाते हैं मगर परिंदा लौट कर नहीं आता मगर परिंदा लौट कर नहीं आता