परिंदा जो होंटों पे पर तौलता था उसे बाज़ रखने की ख़ातिर इक आसेब था मेरे दर पे क़द उस का फ़लक नापता था निगाहें उठाओ जो चेहरे की जानिब तो घुटने से अटकीं मुझे उस ने मोहरे की सूरत उठाया और इक स्विमिंग-पूल में ला के डाला वो ये चाहता था कि पानी में ये आग भड़काने वाली हसीं मछलियाँ मुझ को रंगों में अपने जकड़ लें मिरे ख़ूँ में ये आतिश रंग भर कर मुझे भस्म कर दें मगर जब न हो पाया ऐसा तो उस ने मुझे इक पहाड़ी गुफा में उतारा जहाँ सीम-ओ-ज़र का इक अम्बार सा था उस अम्बार में खुल जा सिम-सिम की याद आई चालीस चोरों की दहशत दर आई मुझे उस ने क़ासिम की सूरत में देखा था उस को यक़ीं था चका-चौंद ज़र की मुझे दश्त-ए-ना-बूद की राह पर डाल देगी मगर जब न हो पाया ऐसा तो उस ने मिरी इक कफ़-ए-दश्त पर चाँद और दूसरी पे रखा ला के सूरज और ख़ुद अपनी टाँगों से ए और वी उँगलियों से बना कर अजब तुनतुने से खड़ा था मिरे हाथ ने उस की वी पर ये चाँद और सूरज उछाले छनाका हवा ज़ोर का मैं ने देखा ज़मीं पर ये चाँद और सूरज शिकस्ता थे और होंट के मुस्तक़र से परिंदा फ़ज़ाओं के आग़ोश में तैरता था ज़मीं आसमाँ के क़ुलाबे मिलाता हुआ देव आसेब क़द में मिरी ऊँची गर्दन के जूते के हम-सर हुआ था