दिन ढला कूचा ओ बाज़ार में सफ़-बस्ता हुईं ज़र्द-रू रौशनियाँ उन में हर एक के कश्कोल से बरसें रिम-झिम इस भरे शहर की नासूदगियाँ दूर पस-मंज़र-ए-अफ़्लाक में धुँदलाने लगे अज़्मत-ए-रफ़्ता के निशाँ पेश-ए-मंज़र में किसी साया-ए-दीवार से लिपटा हुआ साया कोई दूसरे साए की मौहूम सी उम्मीद लिए रोज़-मर्रा की तरह ज़ेर-ए-लब शरह-ए-बेदर्दी-ए-अय्याम की तम्हीद लिए और कोई अजनबी इन रौशनियों सायों से कतराता हुआ अपने बे-ख़्वाब शबिस्ताँ की तरफ़ जाता हुआ