कोई ख़्वाब था या ख़याल था वो दिल-ओ-नज़र का मलाल था थे उसी के दम से ये फ़ासले वही क़ुर्ब-ए-जाँ से निहाल था वही ज़ौ-फ़िशाँ था सुख़न सुख़न वही फ़िक्र-ओ-फ़न का कमाल था थीं उसी के नाम बुलंदियाँ वही आप अपनी मिसाल था वो शुआ-ए-मेहर-ए-यक़ीं बना वही इज़्तिराब-ए-ज़मीं बना मेरे सर पे साया-फ़गन हुआ वही ए'तिबार का दीं बना मिरे वास्ते मिरे नाम पर वही रौशनी की जबीं बना जिसे लिख सकूँ मैं हवाओं पर वो ग़ज़ल का सोज़-ए-मुबीं बना था वो अब्र-ए-बाराँ हयात का वो मह-ए-दरख़्शाँ हयात का वो मिला तो ऐसा लगा मुझे कि वही है उनवाँ हयात का मिरी आरज़ूओं का सिलसिला था वही तो सामाँ हयात का हुई रूह ज़िंदा वजूद की हुआ जिस्म ताबाँ हयात का मगर अब जो बिखरी सदाक़तें बनी ख़्वाब सारी हक़ीक़तें कोई नक़्श-ए-यास बुझा हुआ कहीं सरफ़राज़ रिवायतें मिरा ए'तिबार न छू सका तिरे इल्तिफ़ात की राहतें जो मिरे यक़ीं का लिबास थीं हुईं बे-हिसार वो लज़्ज़तें वो गया तो ऐसा गया कि फिर न पलट के आया मिरी तरफ़ न ही उस ने सोचा कभी मुझे न ही सर झुकाया मिरी तरफ़ वो लतीफ़ झोंका बहार का जो न देख पाया मिरी तरफ़ मिरे दिल के अरमाँ बिखर गए वो कभी तो आता मिरी तरफ़ ये गुमाँ ही मेरा यक़ीं है कि कहीं भी रूह का घर नहीं मिरे रोज़-ओ-शब के दयार में कहीं रौशनी का गुज़र नहीं है उदास चाँद बुझा बुझा कोई हर्फ़ हर्फ़ गुहर नहीं उसे अपना मैं ने समझ लिया वो जहाँ में अपना मगर नहीं